Sunday, March 16, 2008

मत कहो आकाश में कुहरा घना है -Dushyant Kumar

मत कहो आकश में कुहरा घना है
-दुष्यंत कुमार



मत कहो आकाश में कोहरा घना है
ये किसी की वयक्तिगत आलोचना है

सुर्या हमने भी नही देखा सुबह से
क्या करोगे, सुर्या को क्या देखना है

रक्त वर्षों से नसों में खौलता है
आप कहते हैं क्षनिक उत्तेजना है

दोस्तों! अब मन्च पर सुविधा नहीं है
आजकल नेपथ्य में सँभावना है

हो गयी है पीर परवत सी, पिघलनी चाहिये
इस हिमालया से कोई गंगा निकलनी चाहिये

आज ये दीवार परदों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिये

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लेहराते हुए, हर लाश चलनी चाहिये

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिये

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहिं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिये

Monday, March 3, 2008

साईकिल की सवारी

Hi friends. If you can recall, long back in our seventh -eighth standard, we had a funny story in Hindi textbook, called "साईकिल की सवारी"
The following poem is based on the same story and I had composed it long long back ...may be 6 yrs ago. Hope you njoy...!!!
दुनिया में दो शौक की चीज़ें, थीं हमें बहुत प्यारी
एक तो हारमोनिअम बजाना, दूसरा साईकिल की सवारी।
हारमोनिअम तो सीख लिआ , पर न सीख सके साईकिल की सवारी।
जवानी के बाद हमें, कोसती रही अक्ल हमरी।
हमारे छोटे ने भी सीख ली साईकिल की सवारी बचपन मे,
हम सोचते ही रह गये, क्या हम ही एक फ़िसड्डी हैं जीवन में।
हमने भी एक योजना बनायी,साईकिल की सवारी सीखने को,
100 रुपये प्रति माह पर रखा एक उस्ताद.......
जँबक का डिब्बा खरीदकर, ढूँढ लिया एक मैदान;
मिस्त्री को ढूँढना न पड़ा, बगल मे थी उसकी दुकान।
पहले दिन से शुरु किया साईकिल चलाना,
चलाना तो दूर की बात, चढ़ते ही गिर गये।
उस्ताद बोले,"मियाँ! अंगूर नहीं खा रहे हो!
साईकिल चला रहे हो !!"
बार बार गिर गिर कर, घायल हो हो कर
सपनों में साईकिल देखदेख कर,
और साईकिल को कोस कोसकर, किसी तरह
साईकिल चलाना सीखी बड़ी मुशकिल से
पर चढ़ना उतरना अब भी ना आता था।।
रास्ते में दूसरों को चीखकर सामने से हटा देते थे
और कोई नहीं हटा तो समझो भिड़ गये।।
एक दिन रास्ते में, मिले "तिवारी" दफ़्तर के दोस्त।
हमें प्रपोज़ किआ, चलो चलकर उड़ायें मुर्गे का गोश्त।।
हम बोले ,"साईकिल नयी नयी सीखी है,
कैसे चढ़ेंगे और कैसे उतरेंगे?"
वे बोले,"अजी कोई बात नहीं, हम उतार देंगे और हम ही चढ़ायेंगे"।
हम पीछे देख तिवारी से बतिया रहे थे कि
सामने से एक ताँगा आया।
हमारे होश सँभालने से पहले ही,
हमने साईकिल को ताँगे से भिड़ाया।।
इतनी बुरी भिड़ंत, ऐसी गज़ब की टक्कर,
कुछ समझने से पहले ही, हम खा गये चक्कर।
उसके बाद क्या हुआ,अल्लाह जाने!होश आया,देखा
तो थे बीवी के साथ अस्पताल में,
सोचा सारा दोष तिवारी के सर मढ़ दें,
बोल पड़े "सारी गलती उस तिवारी की है!"
बीवी ने कहा,"तिवारी की नही!गलती इस मनहूस साईकिल की सवारी कि है।"
किसी और से नही, ये ज़खम हमें मिले थे हमारे ही माँगे पर,
बाद में पता चला, पूरा परिवार था उस ताँगे पर !!!