Sunday, April 20, 2008

हाय मेरे नितम्ब! ........lolzzz

http://www.hindinest.com/vyang/v18.htm


कामिनी को कमनीय काया की कामना न हो, तो कामिनी ही कैसी? आप जानते ही होंगे कि आदम और हव्वा को ज़मीन पर इसीलिये ढकेला गया था कि आदम महाशय हव्वा की क़यामती काया को देखकर ऐसे बदहवास हो गये थे कि फ़रिश्ते की मुमानियत का ख़याल भूलकर उसे कौरिया लिया था। तब से आज तक हव्वा की हर बेटी को अपने को अपार खूबसूरत दिखने का शौक जुनून की हद तक रहता है। बेटियां चलने फिरने लायक हुईं कि मॉ को अपनी ड्रेसिंग टेबिल पर रखी लिप-स्टिक, बिंदी, और क्रीम पाउडर की हिफ़ाज़त करना प्रारम्भ कर देना पड़ता है। जिन दिनों बेटों में नकली बंदूक से धांय धांय करने का शौक जागता है, बेटियां कंघी से आडे-तिरछे बाल संवार कर शीशे में अपने चेहरा निहारना शुरू कर देतीं हैं। और जवानी का रंग चढ़ते चढ़ते तो कन्यायें अपनी सुंदरता पर ऐसी आत्मविभोर हो जातीं हैं जैसे सावन के अंधे को हर सिम्त हरा हरा ही सूझता है।

यह बात दीगर हैं कि अब बराबरी का ज़माना आ गया है और आदमियों को भी यह ज़नाना शौक चर्रोने लगा है। एक मेरे लड़कपन का वक्त था कि जवानी की दहलीज़ पर कदम रखने वाले मेरे एक पहलवानछाप दोस्त ने जब एक हमउम्र हव्वा को आंख मारकर उसका दिल दहला दिया था, तो हव्वा की शिकायत बड़े बूढ़ों ने यह कहकर खारिज़ कर दी थी कि 'वह /मेरा दोस्त/ ऐसा कर ही नहीं सकता है क्योंकि वह सिर घुटाकर रहता है और पतलून तो क्या कभी सुथन्ना /पाजामा/ भी नहीं पहिनता है।' उन बूढ़ों की समझ में अपनी खूबसूरती के प्रति बेख़बर सिर सफाचट रखने वाला और धोती-कुर्ता पहिनने वाला लड़का भीष्म-प्रतिज्ञ ब्रह्मचारी के अलावा और हो ही क्या सकता था? जब कि सच यह था कि मेरे दोस्त मोशाय सूरत के जितने भोले थे, सीरत के उतने ही मनचले थे, और मौका हाथ आते ही इधर उधर मुंह मार लेते थे। उन दिनों मैं भी अच्छा बच्चा समझे जाने के चक्कर में सिर पर एक लम्बी और मोटी चोटी रखता था और बेखौफ़ लुकाछिपी कर लेता था। पर आज ज़माना बदल गया है और खुला खेल फरक्काबादी खेला जाने लगा है। अब तो कल-के-छोकरे न सिर्फ बालों की लहरदार कुल्लियां रखाये घूमते हैं बल्कि हर घंटे, आध-धंटे में बडों के सामने बेझिझक उन पर कंघी भी फिराते रहते हैं। आज के लड़कों के मुंह से तोतले बोल भी डिज़ाइनर टी-शर्ट और लिवाइज़ जीन्स की फ़रमाइश के साथ ही निकलते हैं। और वे ऐसा क्यों न करें जब उनके बापों को खुले आम ब्यूटी पार्लर में नमूदार होते और वहां से होठों पर लिप-स्टिक लगवा कर और गालों पर पाउडर क्रीम चुपड़वाकर निकलते देखा जाता है? जब बाप छुलकां मूतते हैं तो बेटे चकरघिन्नी की तरह घूम - घूम कर मूतेंगे ही।

ऐसे माहौल में ब्यूटी पार्लर वालों की पांचो उंगलियां घी में हो गईं हैं। अगर आप बेकार हैं और बेकाम के आदमी /या औरत/ हैं तो एक कमरे के दरवाजे पर 'मेल ब्यूटी पार्लर' या 'लेडीज़ ब्यूटी पार्लर' या सिर्फ़ 'ब्यूटी पार्लर' का बोर्ड जड़ दीजिये और उसके दाहिने कोने पर पेंटर से शहनाज़ हुसेन का एक गहरा रंगा-पुता चित्र बनवा दीजिये। फिर चाहे वह चित्र टुनटुन जैसा ही क्यों न दिखता हो, आप पायेंगे कि उस दरवाजे क़ी शामें रोज़ ज्यादा से ज्यादा खुशनुमा हो रहीं हैं और आप की तिजोरी की सेहत दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है।

रूप और रुपयों की यह बरसात देखकर डाक्टरों का माथा भी ठनका है और उन्होंने सोचा है कि वे भी क्यों न इस बहती गंगा में हाथ धो लें? सो उन्होंने फ़िगर सुधारने के 'भरोसेमंद' शॉर्ट कट्स निकालने शुरू कर दिये हैं। उन्हीं में एक को नाम दिया है लिपो सक्शन जिसका हिंदी तर्जुमा होता है कि अगर आप के शरीर का कोई अंग जैसे पेट, जांधें आदि हिप्पो जैसा मोटा है तो वे उसकी चर्बी को खींच कर उसे लिपा हुआ सा पतला बना देंगे। लिपो सक्शन के ईजाद होने की खबर जैसे ही धनी महिलाओं में फैली कि चारों ओर हड़बडी मच गई। कौन नहीं जानता है कि बेमुरौव्वत चर्बी को महिलाओं के पेट से बेपनाह उन्सियत होती है- जहां किसी 36.24.36 की कमनीय काया को मातृत्व की गरिमा प्राप्त हुई, तो अविलम्ब 24 की मध्य-संख्या 36 की गुरुता को प्राप्त करने को उतावली होने लगती है। हाल में रोमानिया की एक माडल के बच्चा पैदा होने पर उसके साथ भी यही हादसा हुआ और वह अपने पेट की चर्बी से काफी ग़मगीन रहनें लगी। हालांकि उसके नितम्ब एवं वक्ष पर भी कुछ चर्बी आ गई थी, परंतु देखने वालों ने उस चर्बी से उसकी सुंदरता में चार चांद लगने की बात कही थी- बस पेट की चर्बी ही चांद पर ग्रहण लगा रही थी। वह माडल एक मशहूर कौस्मेटिक सर्जन का नाम सुनकर उनके पास पेट की चर्बी कम कराने गई। मोटा ग्राहक फंसते देखकर सर्जन साहब के चेहरे पर रौनक आ गई और वह फटाफट बोले,'अरे, यह तो मिनटों का काम है।', और फिर अपनी व्यस्तता दिखाने हेतु डायरी देखते हुए लिपो सक्शन हेतु दूर की एक तारीख़ निश्चित कर दी। वह तारीख़ आते आते सर्जन साहब यह भूल गये कि लिपो सक्शन कहां का होना है, और जब आपरेशन थियेटर में एनिस्थीसिया के नशे में वह माडल अपनी कमर के पुन: पुरुष-संहारक हो जाने का स्वप्न देख रही थी तब उन्होंने सक्शन यंत्र उसके नितम्ब में लगाकर उन्हें निचोड़ दिया। जब माडल की मोहनिद्रा खुली और उसने अपने बदन को टटोला तो वह यह जानकर हतप्रभ रह गई कि उसका पेट यथापूर्व मोटा था और उसके नितम्ब निचुड़ गये थे जिससे उसका बदन ऐसा हो गया था जैसे बांस की खपाचों पर गेहूं से भरा बोरा रख दिया गया हो।

यह देखकर विषादपूर्ण आश्चर्य से उसके मुख से बस तीन शब्द निकले, ''हाय मेरे नितम्ब!''

-महेश चंद्र द्विवेदी

नफ़रत

देखो, तो अब भी कितनी चुस्त-दुरुस्त और पुरअसर है
हमारी सदी की नफ़रत,
किस आसानी से चूर-चूर कर देती है
बड़ी-से-बड़ी रुकावटों को!
किस फुर्ती से झपटकर
हमें दबोच लेती है!

यह दूसरे जज़्बों से कितनी अलग है --
एक साथ ही बूढ़ी भी और जवान भी।
यह खुद उन कारणों को जन्म देती है
जिनसे पैदा हुई थी।
अगर यह सोती भी है तो हमेशा के लिए नहीं,
निद्राहीन रातें भी इसे थकाती नहीं,
बल्कि और तर-ओ-ताज़ा कर जाती हैं।

यह मज़हब हो या वह जो भी इसे जगा दे।
यह देश हो या वह जो भी इसे उठा दे।
इंसाफ भी तभी तक अपनी राह चलता है
जब तक नफ़रत इसकी दिशा नहीं बदल देती।
आपने देखा है इसका चेहरा
-- कामोन्माद की विकृत मुद्राओं वाला चेहरा।

ओह! दूसरे जज़्बात इसके सामने
कितनी कमज़ोर और मिमियाते हुए नज़र आते हैं।
क्या भाई-चारे के नाम पर भी किसी ने
भीड़ जुटाई है?
क्या करुणा से भी कोई काम पूरा हुआ है?
क्या संदेह कभी किसी फ़साद की जड़ बन सका है?
यह ताक़त सिर्फ़ नफ़रत में है।
ओह! इसकी प्रतिभा!
इसकी लगन! इसकी मेहनत!

कौन भुला सकता है वे गीत
जो इसने रचे?
वे पृष्ठ जो सिर्फ़ इसकी वजह से
इतिहास में जुड़े!
वे लाशें जिनसे पटे पड़े हैं
हमारे शहर, चौराहे और मैदान!

मानना ही होगा,
यह सौंदर्य के नए-नए आविष्कार कर सकती है,
इसकी अपनी सौंदर्य दृष्टि है।
आकाश के बीच फूटते हुए बमों की लाली
किस सूर्योदय से कम है।
और फिर खंडहरों की भव्य करुणा
जिनके बीच किसी फूहड़ मज़ाक की तरह
खड़ा हुआ विजय-स्तंभ!

नफ़रत में समाहित हैं
जाने कितने विरोधाभास --
विस्फोट के धमाके के बाद मौत की ख़ामोशी,
बर्फ़ीले मैदानों पर छितराया लाल खून।

इसके बावजूद यह कभी दूर नहीं जाती
अपने मूल स्वर से
ख़ून से सने शिकार पर झुके जल्लाद से।
यह हमेशा नई चुनौतियों के लिए तैयार रहती है
भले ही कभी कुछ देर हो जाए
पर आती ज़रूर है।
लोग कहते हैं नफ़रत अंधी होती है।
अंधी! और नफ़रत!
इसके पास तो जनाब, बाज की नज़र है
निर्निमेष देखती हुई भविष्य के आर-पार
जो कोई देख सकता है
तो सिर्फ़ नफ़रत।

- विस्साव शिंबोर्स्का
- अनुवाद: विजय अहलूवालिया

आराम करो

This is one of the best poems i have ever come across.Really a master piece.Author's name is Gopal Prasad Vyas.





एक मित्र मिले, बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छँटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो।
क्या रक्खा है माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो।
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो।
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।

आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।

यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो।
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो।
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में।
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में।
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ -- है मज़ा मूर्ख कहलाने में।
जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।

मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ।
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ।
दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ।
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ।
मेरी गीता में लिखा हुआ -- सच्चे योगी जो होते हैं,
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।

अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है।
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है।
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है।
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।

मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ।
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ।
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं।
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं।
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो।
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।

- गोपालप्रसाद व्यास

Center (flip book animation)

Friday, April 18, 2008

Coolest flip book animation

निश्छल भाव (nishchchhal bhaav)

This is a beautiful poem I came across. The author's name is written below.

You can see more poems like this on http://manaskriti.com/kaavyaalaya/


निश्छल भाव

मेरे अन्दर एक सूरज है, जिसकी सुनहरी धूप
देर तक मन्दिर पे ठहर कर
मस्जिद पे पसर जाती है !
शाम ढले, मस्जिद के दरो औ-
दीवार को छूती हुई मन्दिर की
चोटी को चूमकर छूमन्तर हो जाती है !

मेरे अन्दर एक चाँद है, जिसकी रूपहली चाँदनी
में मन्दिर और मस्जिद
धरती पर एक हो जाते है !
बड़े प्यार से गले लग जाते हैं !
उनकी सद्भावपूर्ण परछाईयाँ
देती हैं प्रेम की दुहाईयाँ !

मेरे अन्दर एक बादल है, जो गंगा से जल लेता है
काशी पे बरसता जमकर
मन्दिर को नहला देता है,
काबा पे पहुँचता वो फिर
मस्जिद को तर करता है !
तेरे मेरे दुर्भाव को, कहीं दूर भगा देता है !

मेरे अन्दर एक झोंका है, भिड़ता कभी वो आँधी से,
तूफ़ानों से लड़ता है,
मन्दिर से लिपट कर वो फिर
मस्जिद पे अदब से झुक कर
बेबाक उड़ा करता है !
प्रेम सुमन की खुशबू से महका-महका रहता है !

मेरे अन्दर एक धरती है, मन्दिर को गोदी लेकर
मस्जिद की कौली भरती है,
कभी प्यार से उसको दुलराती
कभी उसको थपकी देती है,
ममता का आँचल ढक कर दोनों को दुआ देती है !

मेरे अन्दर एक आकाश है, बुलन्द और विराट है,
विस्तृत और विशाल है,
निश्छल और निष्पाप है,
घन्टों की गूँजें मन्दिर से,
उठती अजाने मस्जिद से
उसमें जाकर मिल जाती है करती उसका विस्तार है !

- दीप्ति गुप्ता

Thursday, April 3, 2008

अकेले हैं तो क्या गम है?

Hi everyone, continuing in my series of hindi poems,here is a new one....hope you like it.I took me around one and half hour to make it.Dont rush through it, take your time to read.



हर तरफ़ सब हँस रहे ,इक मैं ही आँसुओं का मारा हूँ,
हर तरफ़ सब बस रहे, मैं ही इक आवारा हूँ।
चल रहे सब साथ में, डाले हाथों मे हाथ,
छटपटाता और तरसता, मैं ही इक बेचारा हूँ।
दिल मे मेरे क्या है, ये कोई क्यूँ पहचानेगा,
सब दिखावा कर रहे, ये दर्द क्या कोई जानेगा।
हर किसी के साथ मे कोई ना कोई चल रहा,
चुपचाप हाथ बाँधकर राह पर हूँ मैं खड़ा
अकेलेपन का यही गम, मुझे मन ही मन खाये जाता,
डराते हुए इस मन को मेरे, सँकरा कर रुलाये जाता,
ढूँढता हूँ मैं भी हँसते इंसानों को इस भँवर में,
कहीं तो कोई हो जो गले लगकर, दिल की दो बातें करले।
नकली हँसी के मायाजाल में, मुझसे नहीं अब हँसा जाता,
देखकर दूसरों की मुस्कुराहट, हम भी मुस्कुरा देते हैं, पल दो पल के लिये।
इक वक्त था जब हम भी दिल से हँसते थे,
और हँसाते दूसरों को.....
पर हमें क्या मालूम था कि वो हैं हमीं पर हँस रहे।
अरसा बीत गया अब तो, ऐ मेरे दिल!
दिल से मुझको हँसे हुए....
बोल,तुझे क्या है लगता ??क्या ये सब नकली नहीं??
तब ये मेरा दिल है बोला मुझसे....
क्यूँ खुशी को ढूँढता तू, है अपने चारों तरफ़,
ये तो बसती ही है तुझमे, एक कस्तूरी के जैसे,
क्यूँ आशा करता है कि, हाथ तेरा कोई थाम ले,
क्यूँ ना तू अपने ही हाँथ, विश्वास से ही थाम लेता,
झाँक ले इन सब के अंदर, ये सब भी भरे हैं दर्द से।
रोना और डरना यहाँ, किसी मुश्किल का हल नहीं,
कर भरोसा खुद पे तू, ये मुश्किलें इतनी भी मुश्किल नहीं....
राह चलता जा ऐ रही, जी ले हर पल इस धरा पर,
कर्म करता जा तू अपना, कि तेरी भी कीमत कम ना हो,
कर ले तन्हाई से नाता, कि अबकि कोई गम ना हो।
आया अकेला इस ज़मीं पर, जाना अकेले है यहाँ से,
फ़िर क्या गम है तुझको यारो, ये पल अकेले जीने मे ............


To live is not enough, the trick is to live with YOURSELF................