courtesy : Arvind Saaraswat
http://www.hindinest.com/vyang/v19.htm
विलासिता का दुख
जब कभी भी किसी विकसित देश में उपलब्ध आम जनसुविधओं के बारे में सुनता या पढ़ता हूं तो हृदय से हूक उठ जाती है। अब इसका अर्थ आप यह कदापि ग्रहण न करें कि मैं उनकी सुविधा-सम्पन्नता से जल उठता हूं। बिना किसी आत्म प्रवंचना के कहूं तो मुझे यह उनकी विपन्नता ही नजर आती है। सुख-सुविधाओं का जो मायाजाल अपने देश में निहित है वह कहीं ओर कहां हो सकता है। अब आप ही बताइए वो सुविधा किस काम की जो आप को बांध कर ही रख दे। सुना है अमेरिका में बिजली कटौती न के बराबर है। यदि ऐसा है तो वहां के घरों में रहने वाले लोग इक्का-दुक्का मौकों पर ही एक-साथ घर से बाहर निकलते होंगे। अब अपने यहां देखिए दिन में दसियों घंटों तक तो बिजली गुल रहती है, बिजली होती भी है तो जल देवता नदारद मिलते हैं। इन दोनों ही अवसरों पर जमावड़ा चौक पर होता है। दिन में 24 घंटों में से 16 घंटे तक रौनक घर के बाहर ही होती है और ऐसे अवसरों पर जो मुख और श्रवण सुख मनुष्येन्द्रियों को प्राप्त होता है, वह भला उन पाश्चात्य देशों में रहने वाले लोगों को कहा मिलता होगा। अपने यहां की महिलाएं एवं पुरुष दोनों ही इस अवसर का लाभ अपने दिल की भड़ास निकालने के लिए बखूबी करते हैं। दूसरों की बुराइयां करने में जो सुख मिलता है वो भला 5 सितारा होटलों में अब बताइएं यह किस काम की विकसिता। ट्रेफिक नियमों के संबंध में भी वहां फैली विषयता झलकती है। बी.एम.डब्ल्यू, मर्सिडीज आदि जैसी अनेक हाई क्लास भारी-भरकम गाड़ियां भी अदनी-सी रेड लाइट के इशारे पर नाचती हैं, अपने यहां तो लखटकिया वाली छकड़ा गाड़ी भी काले धुंए का गुबार उड़ाती हुई फर्राटे से ट्रैफिक नियमों को धत्ता बताकर रख देती है। बड़ी-बड़ी गाड़ीवालों का तो कहना ही क्या! वो तो जब तक जी चाहा रोड पर, नहीं तो फुटपाथ पर दौड़ पड़ती हैं विदेशों में मॉडर्न ऑर्ट की मांग बहुत हो, परन्तु वहां पर इस कार्य के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। अपने यहां तो लोग मुंह में कूची लेकर घूमते रहते हैं। जहां दिल किया पच्च... पिचकारी मारी और दीवार पर मॉडर्न ऑर्ट तैयार। जबकि विदेशों में तो सड़क पर थूकने पर ही जुर्माने का प्रावधान है। अब आप ही बताइए यह कहा का इंसाफ है कि मनुश्य को सोने के पिंजरे में कैद करके रखा जाए। संभवत: यह सारी कमियां वहां के प्रशासन की देन है। हम अपने विकास के पाषाणयुग को भी नहीं भूलते बल्कि उसका यदा-कदा प्रदर्शन सांसद में कर उसका सीध प्रसारण देश भर में करवा देते हैं ताकि हमारी वास्तविक पहचान छोटे-छोटे बच्चों तक के हृदय में स्थायी बनी रहे। हम अपनी शारीरिक क्षमता एवं धाराप्रवाह बोलने की दक्षता का सटीक अवलोकन संसद में माइक, कुर्सी, मेज तोड़कर तथा धरने के दौरान चीख-पुकार कर दर्शा देते हैं। हमारे मन में जब भी भड़ास उत्पन्न होती है, तो उसे सरकारी वस्तुओं यथा बस, ट्रेन के शीशे, खंभे, ग्रिलों आदि पर इत्मीनान से निकाल देते हैं। अब आप ही कहें, ऐसा क्या वहां संभव है। वहां के लोग घरों के अंदर दुबक कर सोते हैं। अपने यहां तो आम आदमी रात को चने चबाकर पानी का घूंट मारकर तसल्ली से ग्रहों से विचार-विमर्श कर सोता है। वहां पर लोग विकेंड सिस्टम से चलते हैं परन्तु अपने सरकारी कर्मचारी तो कार्यालय में रहकर भी विकेंड मनाते हैं। ऐसी विसंगतियों के चलते यदि वह यह भ्रम मन में पाल कर बैठें हैं कि वह विकसित है, तो मैं इस पर सिर्फ खिसयानी हंसी ही हंस सकता हूं।
अरविन्द सारस्वत
No comments:
Post a Comment